9.पाप ओर पुण्य :
मनुष्य अपने जीवन में कर्म करता है ।। कर्म से आशाएं भी बंधी होती हैं। जीवन में किसी भी कार्य को करने के बाद उस से जुड़ी इच्छाएं होती है। जब किसी कार्य को फल की आशा से कार्य करता है। तब कार्य पूर्ण रूप से कर्म के रूप में बंध जाता है। जैसे कोई मनुष्य अपने आप को परमात्मा को प्रार्थना करता है।। किसी भी देवता के रूप में प्रार्थना करता है। तब उसी रूप में भक्त जो भी मुरादे होता है।। उन कार्य के रूप में कर्म के रूप में भक्त को मिल जाता है।।
जब मनुष्य किसी कार्य को बिना आशाएं बंधे कार्य करता है। तब कार्य को करने के बाद मनन में कुछ पाने की या प्राप्त करने की आशाएं नहीं होती है। तब कार्य के रूप में निष्काम कर्म कहा जाता है। मनुष्य के भीतर मनन कि लालसा नहीं होती।। कार्य के बदले किसी तरह को।प्राप्त की आशा नहीं होती है। मनुष्य अपने आप को कार्य से मुक्त किया है। फल की आशा को पूर्ण रूप से मुक्त किया है। उने सिर्फ कर्म किया है।। कर्म करने के बाद फल की आशा नहीं रही। तब इसे कार्य को निष्काम कार्य कहलाता है।
उसी तरह से अपने जीवन में सभी कार्य को निष्काम कर्म के रूप में करना होता है। किसी भी कार्य को करना है लेकिन उन से जुड़ी कार्य से आशाएं नहीं बांधनी होती है। मनुष्य जीवन में आशाएं बांधता है तब मनुष्य अपने आप को कार्य के रूप में बांधता है।।
जीवन में किसी समय में आप हार जीत , सुख दुःख , पाना खोना , उच्च नीच, अच्छा भुरा , सही गलत सभी तरफ के कार्य आप जिस तरह मानते जाते है। ठीक ऐसा ही आपके जीवन में असंतोष होगी। मनन ओर विचारो से डूब जायेगे। गलत ओर दुःख सुख में बंधा जीवन होगा। आप जीवन में को भी सोचते ही विचार करते हो । वोह सब आप को कार्य के रूप में बांधता है।। ओर जैसा कार्य के रूप में है वैसा ही कार्य के रूप में कर्म होगा।। अकर्म कार्य से आप पाप से बंधे जायेगे। जीवन में सब आप मानते हो तब आप सही , गलत , हर जीत , हत्या अपने में ग्रहण करते है। जब तक आप अपने कार्य में नहीं किसी हार के भागीदार होगे। नहीं आप को जीत का आंनद होगा । नहीं आप किसी की हत्या कि हो। जब आप सभी कार्य को मुक्त करते हो । तब आप उस कार्य के साथ नहीं बंधते हो।। आप जीत का आनंद नहीं मानते हो। अपने कार्य में जीत को ग्रहण नहीं करते ही। तो आप कर्म से मुक्त हो। अपने मनन में ओर कार्य से जुड़ी आशाएं नहीं होती है।। तब वह कार्य निष्काम कर्म होता है। ओर मनुष्य के जीवन में पाप ओर पुण्य से बच जाता है। मनुष्य को नहीं पाप का भागीदार होता है । नहीं पुण्य से होता है। मनुष्य निष्काम कर्म करता है। किसी कार्य से नहीं बांधता है।। संयम , कर्म करता है। किसी भी कार्य के रूप में आशाएं नहीं बांधता है। ओर ऐसा, मनुष्य को कर्मयोगी कहते है। ऐसा मनुष्य अपने जीवन में बार बार जीतता है।


No comments:
Post a Comment